Sunday 14 June 2015

उल्फ़त  में  ग़म  के  ख़ज़ाने क्या- क्या निकले
हम अपनी आँखों को दिखाने क्या- क्या निकले

समझा था ये  दिल तो  उसे  ही मंज़िल अपनी
मंज़िल से आगे भी ठिकाने  क्या- क्या निकले

हाय   इक   ज़रा  मेरे  लब  खुलने  की  देर थी
फिर महफ़िल में जाने फसाने क्या-क्या निकले

तेरी  ख़ुश्बू   में  खो   गये  जो  उन   लम्हों  से
क़िताब-ए-हसरत में लिखाने क्या- क्या निकले

भरते थे जो दम  कभी अपनी  इक- इक बात का
उसी  जुबां  से  आज  बहाने  क्या- क्या निकले

ना  जाना  इक  उम्र  तक दिल जिगर सब चाक़ हैं
हम चादर तक़िए और सिलाने क्या -क्या निकले

फूलों  का  इक  शहर  और  झूलों  का  गांव   भी
'सरु' खुशियों के वो पल बसाने क्या -क्या निकले