Sunday 8 February 2015



सूरत- ए- दुनियां  सँवरने   में   देर  हो  गई
यक़ीनन   चश्मा   बदलने  में   देर  हो  गई

कुछ तो बहके हुए कदमों पर इख्तियार न था
तो  कुछ  दिल  को  संभलने  में  देर  हो  गई

फ़ैसला  जल्दी  का  था इसलिए माफ़ करना
जिंदगी  तुम  तक  पंहुचने  में  देर  हो  गई

तू  छोड़  दे  आवारगी   ए  बादल  फलक पर
देख  आज  फिर  चाँद निकलने में देर हो गई

तिरे  शहर  तिरी  गली की खाक़ छानती रही
मिरी  ख्वाहिश  को  पलटने  में  देर हो गई

बरसात  ना  हुई  कभी धूप ना मिली तब ही
गुल -ए -गुलाब  को  महकने  में देर हो गई

दम  टूटा 'सरु'  मिरा या इसमें जान आई है
बस   यही   बात  समझने   में  देर  हो  गई

No comments:

Post a Comment