Saturday 3 January 2015


दुनियाँ भर की खाक़ हम छानते रहे
ज़िंदगी  में  ज़िंदगी  से  भागते  रहे

कुछ राबता  है  उस   शहर  से  मेरा
पलके बिछाए रास्ते मुझे ताक़ते रहे

ना  ज़मीन  को पाया ना आसमाँ देखा
जाने  किस -किस का कहा मानते  रहे

इसीलिए आँखोंमें अश्क दामन में खाक़ है
हम दिल के ज़रूरी काम सारे टालते रहे

आते भला कैसे भीगी-सी आँखों में अपनी
ख्वाब  टूटने के शोर से हम जागते रहे

शामिल  ही  कब  थे  चूहे  भी  दौड़ में
बिल्लियों  को  देखकर  वो भागते रहे

दर्द ने सीने में उठकर बिठा दिया 'सरु'
बोझ जमाने का जो दिल पर डालते रहे 

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