Monday 5 January 2015

वतन के बच्चे किधर जा रहे बताओ तो सही
मां-बाप  को कोई  रास्ता दिखलाओ तो सही

क़िताबों की दुनियां ने छीन लिया इनसे बचपन
ज़मीन-ए-हक़ीकत से आशना कराओ तो सही

क्यूँ  अंधेरों  में  भटकने  के  लिए छोड़ दिया
चराग़-ए-शब की तरहा जलना सिख़ाओ तो सही

गिरने  दो  चोट लगने दो खुद ही संभलने दो
दर्द  सहने  की  थोड़ी आदत बनाओ तो सही

रिश्तों की क़ीमत का इल्म क़िताबों से ना होगा
मौसी  मामा  चाचा  के घरों मे जाओ तो सही

घरोंदे  बनाने  से  ना  रोकना  नहला  देना
गीली  मिट्टी  की खुश्बुओं से महकाओ तो सही

ज़ह्न पर क़िताबों का सर पर छतों का बोझा है
स्याह रात  में  चाँद-तारे  दिखाओ  तो  सही

कार   क्या  खरीदी  पैरों  पर नहीं चलने देते
खुले  मैदानों  में  ज़रा  देर खिलाओ तो सही

ख़रीदकर  बाज़ार  सारा  दे  दिया तुमने 'सरु'
इन्हें  वक़्त  दो  मोहब्बत  से सजाओ तो सही

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